भारत का सबसे बड़े उत्सव या चुनाव मेले की तय्यारियां अपने चरम पर हैं। एक मर्तबा फिर भारत तकरीबन अस्सी करोड़ मतदाता अपने लिए एक ऐसी सरकार का चुनाव करने के लिए खुद को मानसिक तौर पर तैयार कर रहे हैं जो अगले पांच साल तक देश को ना सिर्फ भय और भ्रष्टाचार से मुक्त शासन दे बल्कि विकास के साथ साथ देश की एकता और अखंडता को भी बनाए रखे। आज देश को सबसे ज्यादा जिस बात की ज़रुरत है वो है रोज़गार और तरक्की की संभावनाओं से भरा माहौल। आज देश का युवा सरकार से अच्छी शिक्षा के साथ साथ रोज़गार के अवसरों भी चाहता है। इसमें कोई शक नहीं की पिछले एक दशक में देश ने कई मोर्चों पर बहुत तरक्की की है और हमारे युवाओं ने भी अपने जोश और हिम्मतके दम पर ना सिर्फ अपना और अपने परिवार का बल्कि देश का भी नाम रौशन किया है। मगर ज़रुरत इससे ज्यादा की है।
हमारे युवाओं में हौसले और ज्ञान की कमी नहीं है। मगर जीवन के हर क्षेत्र में पैर पसारते जा रहे भ्रष्टाचार ने कई युवाओं को हतोत्साहित करने का काम किया है। किसी भी सरकारी दफ्तर में चले जाइये भ्रष्टाचार के बगैर काम करना मुश्किल होता जा रहा है। चुनाव के बाद आने वाली सरकार को भ्रष्टाचार रुपी दानव से जूझना ही होगा। लेकिन जहाँ तक भ्रष्टाचार की बात है तो ऐसा नहीं है कि ये भ्रष्टाचार सिर्फ सरकारी कर्मचारी या नेता ही करते हैं। भ्रष्टाचार में जनता भी उतनी ही भागीदार है। अगर जनता ठान ले कि उसे अपने किसी भी काम के लिए कोई भी गलत तरीका नहीं अपनाना है तो भ्रष्टाचार पर पर अंकुश लगाने में बहुत मदद मिल सकती है। दरअसल हमारा समाज भी खुद इतना भ्रष्ट हो चूका है कि वो ना तो अपनी बारी का इंतज़ार करना चाहता है और न सौ फीसद कोशिश। समाज में ऐसे लोगों की तादाद बहुत ज्यादा हो गई है जो कम मेहनतम और कम कोशिश कर के ही बहुत कुछ हासिल कर लेना चाहते हैं। यही लोग भ्रष्टाचार को पाले का काम करते हैं।
भ्रष्टाचार से भी बड़ी एक और समस्या है जो इस देश को अन्दर ही अन्दर खाए जारही है। और ये है सम्पर्दायिकता। साम्पर्दायिकता एक ऐसी समस्या है जिसका खतरा कभी कम नहीं हो सकता है। इतिहास गवाह है कि सम्पर्दयिकता जब अपने चरम पर थी देश को इसका कितना बड़ा नुक्सान उठाना पड़ा। हमारा देश जातीय8न और धर्मो का देश कहलाता है। संविधान ने जाति या धर्म के आधार पर भेदभाव को ख़त्म किया है। लेकिन कुछ राजनितिक दल जाति और धर्म के नाम पर अपनी दूकान चलाते आ रहे हैं। देश लम्बे समय तक ये सब नहीं झेल सकता।
किसी भी चुनाव के अनेक पहलू होते हैं। कुछ चुनाव मुद्दों पर लदे जाते है और कुछ चुनावों में कोई लहर अपना काम करती है। मगर मुद्दे हमेशा जनता तय करती है।
भारत के चुनावी इतिहास पर नज़र डालें तो हमेशा चुनाव 1984 और 1991 के चुनाव ऐसे थे जिनमे लहर थी। मगर 1991 के चुनाव के बाद एक ख़ास बात ये हुयी कि हर चुनाव साम्पर्दयिकता बनाम सेकुलरिज्म के मुद्दे पर लड़ा गया। अब ये देश की जनता को तय करना है कि उसे कैसी सरकार चुननी है। ऐसी सरकार जो तोड़ने का काम करती है या ऐसी सरकार जो जोड़ने का काम करती है। आज देश की सियासी फिजा में ऐसे नारे भी गूँज रहे हैं जो चुनावी माहौल को सामप्रदायिक बनाने का काम करते हैं और ऐसी बातें भी हो रही हैं जो सबको साथ लेकर चलने का माहौल तैयार करने में मददगार साबित हो सकती हैं। इस समय देश एक दोराहे पर खड़ा है। फैसला मुश्किल है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी देश को अराजकता और साम्प्रदायिकता की आग में झोंकने की कोशिशें हैं। जनता को सबका जवाब देना है।
कोशिश होनी चाहिए कि देश में एक ऐसा समाज निर्मित हो जो संविधान की रक्षा करने की क्षमता रखता हो। संविधान प्रदत्त सभी अधिकारों को हासिल करने के साथ साथ कर्तव्यों का निर्वहन भी कर सकता हो। आज हर देशवासी का फ़र्ज़ है कि संविधान के उच्च नैतिक मूल्यों की रक्षा करने के लिए मौजूद सभी विकल्पों पर विचार करते हुए एक ऐसी सरकार चुने जो संविधान की रक्षा कर सके। संविधान में सेकुलरिज्म पर विशेष बल दिया गया है। इसलिए सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है की वो देश में एक ऐसा माहौल दे जिससे यहाँ के रहने वाले हर व्यक्ति को लगे ही नहीं बल्कि याकीन हो कि इस देश की तरक्की में उसका भी योगदान है, इस देश के विकास पर उस का भी अधिकार है। और ये तभी हो सकता है जब ऐसी सरकार हो जो सबको साथलेकर चलने और सबको मौके देने की ववकालत करती हो और इसके लिए प्रति बढ़ भी हो।
मेरी ही एक ग़ज़ल है जिसके दो शेर कुछ यूँ हैं
हाथ में हाथ हो हर सफ़र है हसीं
तुम मेरा साथ दो हर सफ़र है हसीं
मैं चलूँ तुम चलो ये चले वो चले
हर बशर साथ हो हर सफ़र है हसीं
हमारे युवाओं में हौसले और ज्ञान की कमी नहीं है। मगर जीवन के हर क्षेत्र में पैर पसारते जा रहे भ्रष्टाचार ने कई युवाओं को हतोत्साहित करने का काम किया है। किसी भी सरकारी दफ्तर में चले जाइये भ्रष्टाचार के बगैर काम करना मुश्किल होता जा रहा है। चुनाव के बाद आने वाली सरकार को भ्रष्टाचार रुपी दानव से जूझना ही होगा। लेकिन जहाँ तक भ्रष्टाचार की बात है तो ऐसा नहीं है कि ये भ्रष्टाचार सिर्फ सरकारी कर्मचारी या नेता ही करते हैं। भ्रष्टाचार में जनता भी उतनी ही भागीदार है। अगर जनता ठान ले कि उसे अपने किसी भी काम के लिए कोई भी गलत तरीका नहीं अपनाना है तो भ्रष्टाचार पर पर अंकुश लगाने में बहुत मदद मिल सकती है। दरअसल हमारा समाज भी खुद इतना भ्रष्ट हो चूका है कि वो ना तो अपनी बारी का इंतज़ार करना चाहता है और न सौ फीसद कोशिश। समाज में ऐसे लोगों की तादाद बहुत ज्यादा हो गई है जो कम मेहनतम और कम कोशिश कर के ही बहुत कुछ हासिल कर लेना चाहते हैं। यही लोग भ्रष्टाचार को पाले का काम करते हैं।
भ्रष्टाचार से भी बड़ी एक और समस्या है जो इस देश को अन्दर ही अन्दर खाए जारही है। और ये है सम्पर्दायिकता। साम्पर्दायिकता एक ऐसी समस्या है जिसका खतरा कभी कम नहीं हो सकता है। इतिहास गवाह है कि सम्पर्दयिकता जब अपने चरम पर थी देश को इसका कितना बड़ा नुक्सान उठाना पड़ा। हमारा देश जातीय8न और धर्मो का देश कहलाता है। संविधान ने जाति या धर्म के आधार पर भेदभाव को ख़त्म किया है। लेकिन कुछ राजनितिक दल जाति और धर्म के नाम पर अपनी दूकान चलाते आ रहे हैं। देश लम्बे समय तक ये सब नहीं झेल सकता।
किसी भी चुनाव के अनेक पहलू होते हैं। कुछ चुनाव मुद्दों पर लदे जाते है और कुछ चुनावों में कोई लहर अपना काम करती है। मगर मुद्दे हमेशा जनता तय करती है।
भारत के चुनावी इतिहास पर नज़र डालें तो हमेशा चुनाव 1984 और 1991 के चुनाव ऐसे थे जिनमे लहर थी। मगर 1991 के चुनाव के बाद एक ख़ास बात ये हुयी कि हर चुनाव साम्पर्दयिकता बनाम सेकुलरिज्म के मुद्दे पर लड़ा गया। अब ये देश की जनता को तय करना है कि उसे कैसी सरकार चुननी है। ऐसी सरकार जो तोड़ने का काम करती है या ऐसी सरकार जो जोड़ने का काम करती है। आज देश की सियासी फिजा में ऐसे नारे भी गूँज रहे हैं जो चुनावी माहौल को सामप्रदायिक बनाने का काम करते हैं और ऐसी बातें भी हो रही हैं जो सबको साथ लेकर चलने का माहौल तैयार करने में मददगार साबित हो सकती हैं। इस समय देश एक दोराहे पर खड़ा है। फैसला मुश्किल है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी देश को अराजकता और साम्प्रदायिकता की आग में झोंकने की कोशिशें हैं। जनता को सबका जवाब देना है।
कोशिश होनी चाहिए कि देश में एक ऐसा समाज निर्मित हो जो संविधान की रक्षा करने की क्षमता रखता हो। संविधान प्रदत्त सभी अधिकारों को हासिल करने के साथ साथ कर्तव्यों का निर्वहन भी कर सकता हो। आज हर देशवासी का फ़र्ज़ है कि संविधान के उच्च नैतिक मूल्यों की रक्षा करने के लिए मौजूद सभी विकल्पों पर विचार करते हुए एक ऐसी सरकार चुने जो संविधान की रक्षा कर सके। संविधान में सेकुलरिज्म पर विशेष बल दिया गया है। इसलिए सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है की वो देश में एक ऐसा माहौल दे जिससे यहाँ के रहने वाले हर व्यक्ति को लगे ही नहीं बल्कि याकीन हो कि इस देश की तरक्की में उसका भी योगदान है, इस देश के विकास पर उस का भी अधिकार है। और ये तभी हो सकता है जब ऐसी सरकार हो जो सबको साथलेकर चलने और सबको मौके देने की ववकालत करती हो और इसके लिए प्रति बढ़ भी हो।
मेरी ही एक ग़ज़ल है जिसके दो शेर कुछ यूँ हैं
हाथ में हाथ हो हर सफ़र है हसीं
तुम मेरा साथ दो हर सफ़र है हसीं
मैं चलूँ तुम चलो ये चले वो चले
हर बशर साथ हो हर सफ़र है हसीं